चौथा पिस्तौल


यह कहानी, तीसरा पिस्तौल कहानी का दूसरा भाग है।


पिस्तौल वाली सारी कहानियाँ मर्डर से शुरू तो नही होती लेकिन मर्डर के साथ खत्म जरूर हो जाती हैं। 
1980 के समय की रामसे ब्रदर्स की सारी फिल्मों में लगभग एक सी स्टोरी होती थी।  खाली हवेली होती थी, मरे हुए लोग कब्र से उठ कर चले आ जाते,  हां कुछ भद्दी भद्दी चुड़ैलें भी थीं।
और यहाँ भी सबकुछ प्लान के हिसाब से हुआ। ईलियास अभी जिन्दा था और सरकारी कागज़ों में दूसरा ईलियास , जो मर चुका था, वो दफन हो गया। 
पांच सात महीने तक मैंने एक व्हीकल रिपेयरिंग की दूकान पर काम किया और हुलिया भी काफ़ी बदल लिया था।  इतने दिनों में कभी किसी जानकर  से बात भी नही की। 
एक दिन एक दोस्त ने आकर ईलियास की खबर दी और कहा कि ईलियास तुमसे मिलना चाहता है। 
दो दिन के सफ़र के बाद मैं वहाँ उसके ठिकाने पर पहुंचा। 
मैंने ईलियास को नही पहचाना, वो काफ़ी कमज़ोर था लेकिन उसकी आंखें और चमक दमक मरने वाले ईलियास जैसे नही थी। 

- आओ मेरे जिगरी यार!!!
(ईलियास ने मुझे देखते ही अपनी बाहें मेरी गर्दन पर लपेट दीं)

- कैसे हो ईलियास?

- कैसे हो सकता हूँ तुम बिन, तुम सोच सकते हो ?
और बता जेल से कब छूटा और इतने दिन कहाँ रहा प्यारे ?

- वो सब आराम से बाद में बातें करेंगे , अभी ये बता कि तू यहाँ सेफ तो है न?
और सलीम और राकेश कहाँ है?

-  तुम्हारे जेल जाते ही सब अलग अलग हो गए। सलीम फरार है और राकेश कभी कभी आ जाता है मेरे पास सिगरेट पीने। 

- इस बन्द कोठरी में घुटन नही होती ?

- घुटन तो होती है पर कोठरी की नही, उधार के पैसों की होती है। 

- अरे तु टेंसन न ले, तेरा भाई है न। 
 सब सेट कर देंगे मामला। 

मैंने ईलियास को बोला की अब कुछ दिन उसके पास ही रहूंगा और यह भी कि वो मुझे यहाँ कोई छोटा मोटा काम भी दिलवा दे।
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इस शहर में यह पुरानी हवेली की तरह दिखने वाली आधी नई कोठी, ईलियास के एक करीबी मित्र की थी जिसका प्रेमशंकर ओझा जैसा कोई नाम था और वह अक्सर हमारे पास आता जाता रहता था 
मुझे भी वहां एक कुरकुरों  की दुकान पर रख लिया गया और मेरा काम था दुकान पर माल आयात निर्यात का हिसाब रखना यानी मुनीम का। 
कुल मिलकर स्थिति यह थी कि मेरे सामने टँगे कुरकुरों की पैकीटों की लड़ियों के सामने 
"प्रेम नाई- हेयर सेलून" का बोर्ड दिखाई देता और ईलियास समेत वहाँ दो और नाई काम करते दिखते थे। दिन में  कभी कभी ईलियास मेरी तरफ देखकर ज़ालिम सी हंसी हंस देता था और शाम को हम एक ही रूम में रहते थे। 
हमारे कमरे में एक रोशनदान भी था जो शहर की मुख्य सड़क की सहायक गली को दिखाया करता था। 
उस रोशनदान से मैं ऐसे  लोगों को अनदेखा करता हूँ चाहिए जिन्होंने मुझे उस जेल में रोटियां खाते हुए नही देखा। 
(कभी कभी लगता है , विश्व में इन लोगों को भी पुरस्कार से नवाज़ना चाहिए।)
उन दिनों मैंने अख़बार में कभी नही पढ़ा कि  "नकली दावेदरियों पर हुआ कत्ल सामने आया" या यह भी नही पढ़ा कि "जिसके आरोप में अनवर सजा काट रहा है , वो जिन्दा है।" 
मेरे हिसाब से कुल मिलाकर अनवर जेल में ही था (कुल न मिलाएं तो भी जेल में ही था) और हमारी साज़िस कभी पुलिस के सामने नही आई। 

ईलियास को यहां रज़िया नाम की एक लड़की से प्यार हो गया था और कभी कभार वो उसे कोठी पर ले आता था। मुझे उस रात दुसरे कमरे में सोना पड़ता और  जब वे लाइट बुझाकर सो जाते तो मैं सोचता था कि धरती अब भी घूम रही है।   
अनवर जेल में रोता होगा,
मेरे कानों में आवाज़ पड़ती है -
जब तुम्हें अकेले में, मेरी याद आएगी...
आँसुओं की बारिश में, तुम भी भीग जाओगे। 

सुबह हम लोग सूरज उगने से दो घण्टे पहले ही उठ गए। 
रात भर मुझे बहुत कम नींद आई। 
आठ बजने के आसपास
रज़िया रसोईघर में चाय बना रही थी और ईलियास उसके पीछे चाकू लिए खड़ा था। 
राजेश के हाथ में आज का अख़बार था, उसके मुखपृष्ठ पर पर लिखा था -  
" सेंट्रल जेल से भागा खूंखार आतंकी अनवर, आज सुबह किये 3 शहरों में धमाके, हाई अलर्ट"
अख़बार के पीछे वाली खबर जो मुझे दिखाई दी वह थी-
"करीना ने तैमूर को लेकर कहा कि मेरे पास तैमूर के रूप में एक अमेजिंग बेबी है। उसका लुक शानदार है। प्रेग्नेंसी के दौरान मैंने खूब घी खाया था। "


हम सबने चाय नही पी, जल्दी जल्दी सबने पिस्तौल और बन्दूकें समेटी जो कुछ दिन पहले हमने यहां छुपाई थी, और मेले की ओर निकल गए। 

मेरी जेब में तीसरा पिस्तौल था, रज़िया ईलियास और राजेश की बेग में दो दो और पिस्टल। 
शहर में चारों तरफ खौफ और मातम के माहोल के बीच पुलिसिया गाड़ियां घूम रही थी। 
पुलिस से बचते 
, भागते, हांफते सीधे मेले में जाकर घुसे। 
प्लान के मुताबिक किसी भी साहूकार की पैसे की बेग या गल्ले को लूटकर भागना था और अब प्लान में यह बदलाव था कि न किसी गोटा को पैसे देने और न किसी को बख्शना, सीधे गोली दागनी....आर या पार। 
इसके बाद हम पैसे लूटकर कहीं दुसरे काले रंग के शहर में भाग जाने वाले थे।
हमारे दिमाग पर और विचारों पर हर किसी को कुचलने की मोटी परत जम गई थी। 
रज़िया ने अचानक ईलियास का हाथ खींचा और एक साहूकार की और हाथ किया जिसके हाथ में एक बेग था, वह मेले में अपनी दुकान में पैसे गिन रहा था उसकी मिठाई की बड़ी दूकान थी, हमें उसके सारे पैसे लूट लेने थे। 
हजारों की संख्या में लोगों का जमावड़ा था।  पुलिस का भी सख़्त बंदोबस्त था। 
अचानक कुछ लोग मन्दिर की और भागे, भगदड़ मच गयी, ( पुलिस यहां पहुंच चुकी थी और अनवर के आदमियों ने बम धमाका किया था)
इस बीच पिस्तौल दिखाकर मैंने और ईलियास उस दुकान से पैसे लूट लिये और भागे। 
(हालाँकि एक बूढ़ा व्यक्ति जो ढाबे पर चाय पी रहा था वो हमारे पीछे इसलिए भागा , उसको लगा होगा कि मन्दिर के अंदर भगवान प्रकट हो गए हैं और सब लोग उसे देखना चाहते हैं। )
भीड़ में होकर निकलने के दौरान अचानक एक आइसक्रीम बेचने वाले से मैं टकराया,  उसने अपनी आइसक्रीम की पेटी से पिस्तौल निकालकर ईलियास और रज़िया  पर धड़ाधड़ गोलियां चला दीं। 
उसने अपनी नकली दाढ़ी और बाल उतार कर फेंक दिए। 
वह अनवर था, उसके हाथ में वही "चौथा पिस्तौल" था जो सलीम ने मुझे डेढ़ साल पहले दिखाया था जब मैं जेल से छूटा था।  अनवर उसने मुझे नही मारा। वह चाहता तो उसी वक़्त मुझे मार सकता था। चौथा पिस्तौल उसके हाथ में था और मेरा तीसरा पिस्तौल मेरी जेब में था। चारों तरफ मातम और लाशों का दृश्य किसी अंगूरों के बाग़ जैसा लग रहा था, जिसमें लाशें लाल अंगूरों की तरह लग रही थी। 
 पुलिस ने हमें पकड़ लिया और जब हमें जीप में ले जाया जा रहा था तो
लाशों की भीड़ में  रज़िया और ईलियास की दो लहूलुहान लाश भी हमसे दूर होती जा रही थी।

पुलिस की जीप में अनवर मेरे सामने बैठा था, दोनों के हाथों में लोहे जैसे कुछ था (हथकड़ीयां)
अनवर मेरी और देखता है, इस बीच जीप में लगा स्पीकर कोई पुराण सा गाना सुनाता है, 
"जीना यहां...मरना यहाँ.... इसके सिवा.....जाना कहाँ। .मुझे नींद सी आती है। 


[ मैं एक लम्बा सा अपना लेता हूँ। मैं अपने पुराने दिन पूरी तरह से छू भी नहीं पाया था कि सलाखों के पीछे  एक हृदय विदारक चीख से शहर गूँज उठी दीवारें कराह उठीं और लाखों संवेदनाएं तड़प उठी। 
मुझे एक लम्बा सा सीन दिखाई दिया।  
कुछ चीखें  (वो मेरी अपनी ही चीख थी जो तीसरे पिस्तौल की आवाज़ और फ़रज़ाना की दहाड़ के साथ और भी भयावक हो उठी थी। )
ईलियास खून से लथपथ पड़ा था।
रज़िया रो रही थी,  कोई-कोई वक़्त हमें अंदर से  विखंडित करने के लिए ही आते है। मैं रज़िया को चुप करवाता हूँ ,
दुनिया जटिल हो रही है। लोगों की चिंताएँ भी जटिल हो रही हैं रज़िया!
न्यूटन का क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम हर जगह सही साबित होता है रज़िया!!
असलियत न चेहरा बताता है, न विचार और न ही शक्ल। 
तुम मानो न मानो हर खून के लोथड़े का दुर्भाग्य सिर्फ़ इंसान का रचा हुआ नहीं है, इसमें भगवान भी पुरुष के साथ मिला हुआ है और मिला हुआ है पूरा शहर। 
मौत का यह लम्बा खूनी खेल सड़कों पर बदस्तूर जारी रहेगा। 
आने वाली पीढ़ियों में  लोग बीमारी से नहीं मरेंगे, बुढ़ापे से भी नही, बेरोज़गार लोग पांचवां, सातवां या ग्याहरवां पिस्तौल बेचते हुए फिरेंगे। 
हमें कहीं अंगूर का  बाग़ नहीं मिलेगा,
बैंक में कोई नही जायेगा रज़िया!!
 जेलों में कोई किसी को नहीं सताएगा, आज के बच्चे जो फिल्में देखते हैं उनमे जो लोग एक दुसरे को  मार-मार कर श्मशान पहुँचा रहे हैं, यह ज़हर से भी खारा है रज़िया !!
सबका यही हश्र होना है। इस कायनात के सबसे गरीब और सबसे दुःखी कवियों की कविताएँ उनकी अर्थियों के साथ जला दी गई, और उनकी राख से हम सबने अपनी आँखों में काजल डाल लिया। 
जब भी हम शहर के किसी कोने में नए जीवों को जन्म देते हैं तब कई मौत की किताबें लिखी जाती हैं , उसकी भाषा हर किसी ज़िंदा आदमी को समझ आ जाती है, अनुवाद की जरूरत नहीं होती रज़िया!!
मैं इतना तो जानता हूँ रज़िया कि जीते जी हम अंदर ही अंदर जलते रहते हैं और मरने के बाद जल जाना चाहते हैं। दुनिया के हर आदमी को सुकून और पैसे चाहिए, हम तभी जलेंगे जब खूब सारा खून पी लेंगे रज़िया!! इन सबंधों के संक्रमण के दौर में हम
 खुद को नहीं ढूंढ पा रहे और तुम कहती हो कि.....


सपना टूटता है, और कोर्ट में मुझसे पुछा जाता है की मेरा इस व्यक्ति क्या ताल्लुक है, 
एक बुद्धिमान वकील की अंगुली  लेखक की तरफ होती है। 


मेरा भतीजा जवान हो चुका था,
वह एक दिन हमसे मिलने जेल में आता है और बिना कुछ बोले अपनी आस्तीन ऊँची कर के पेन से लिखा हुआ  कुछ दिखाता है -
" अगले सोमवार यहां गोलियां चलेंगी काका और गोली किसी की महबूबा नही होती"

Comments

Sunil Nehra said…
अगला भाग कब आ रहा है,'बैरागी'जी
Sunil Nehra said…
This comment has been removed by the author.
Sunil Nehra said…
'पांचवा पिस्तौल' भी है क्या